कर्म, राह और सोच - भाग १
अब इसकी दो तरह से पुष्टि की जा सकती है :
१. सत्य - मनुष्य नकारात्मक चीजों की ओर पहले अग्रेषित होता है, अपितु ये जानते हुए भी की वह गलत है और अनुचित है। लालायित भाव ये रहता है की उसे जितने और पाने की इच्छा।
२. विसंगति - अच्छे लोग भी केवल अच्छे लोगों का ही साथ देते हैं और उन्ही की पूंछ - परख भी होती है। लेकिन इसी के विपरीत यदि कोई गलत संगती का व्यक्ति जो अच्छे और नेक रास्ते पर अग्रेषित होना चाह रहा हो उसका साथ विरले ही कोई देने वाला होता हो।
जो नीतियां और विधियां पुरातन से चली आ रही हों , उनको झुठलाया और नाकारा नहीं जा सकता। लेकिन आज के परिवेश और विचारधाराओं ने सब उलट - पुलट कर रख दिया है। समानता का अधिकार तो है लेकिन अधिकार क्षेत्र और निराकरण क्षेत्र अलग - अलग। परिवेश और परिधान सब समान। पश्चिमी सभ्यता का आवेश तो है लेकिन उस सभ्यता से एक दम उल्टा, जो की समझ से परे ।
अब मन में सवाल ये आता है की आखिर पतलून और कमीज बानी किसके लिए थी ?
मानव समाज, केवल नहीं बदल पाया तो वो है ईश्वर भक्ति, साधना और पूजन विधि। सवाल फिर से वही, क्यों?
केवल दृढ़ इच्छा शक्ति ही एक मात्र ऐसा रास्ता है जिसे अपनाने से सही मार्ग पर अग्रेषित होकर सत्कर्म किये जा सकते हैं और सद्मार्ग का रास्ता अपनाया जा सकता है।
स्टेज पर खड़े होकर भाषण देने या दूसरों को सम्बोधित करने मात्र से हम स्वयं कोई ब्रह्मा या पञ्चतात्विक नहीं हो जाते। यह केवल एक जरिया है दूसरों तक अपनी बात पहुंचने की और रखने की।
बहुत आसान होता है की किसी मजबूर या जरुरतमंद व्यक्ति को बहला - फुसला कर उसे आकर्षित करके लूट लेना , लेकिन किसी संयमी, बुद्धिमान और बिज़नेस मैन के लिए आपकी वही चतुराई आपके लिए चिंता का विषय बन जाती है।
और वैसे भी कछुआ और खरगोश की कहानी सबको मुंह जुबानी याद है । बहुत तेज चलने वाला भी गिरा है और धीरे चलने वाला भी जीता है, ज्यादा आराम करने वाला भी परेशान और कम करने वाला भी। तथ्य दोनों में है। केवल प्रतिउत्तर समझने की जरुरत है की फायदा और नुक्सान कब, कैसे और कहाँ है। यह संयम और
दिखावा - गरीब, जो रास्ते पर बैठा भिखारी हो या झुग्गी बस्ती में रहने वाला या फिर निम्न वर्ग का व्यक्ति, असल जिंदगी में दिखावा तो यही लोग करते हैं और दिखावा करने का हक़ भी इन्ही लोगों के पास होना चाहिए। क्योंकि ये जब अपने लिए कुछ नया देखते और पाते हैं तो इनमे एक नियंत्रित उत्साह सा दीखता है, एक सच्चा और चमकता हुआ सा दिखावा।
दूसरी तरफ एक ऐसा दिखावा जिसमे उल्लेख या कुछ लिख पाना या समझाना - समझना भी परे है। पहचानना मुश्किल ऐसा की, दिखावा है या अहंकार।
जटिलताएं बहुत हैं लेकिन समझना बहुत आसान। कबीर दास जी का एक दोहा है,
दोस पराए देखि करि , चला हसन्त हसन्त।
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।।
अर्थ यह है की, मनुष्य का स्वभाव ऐसा होता है की वह दूसरों के दोष और कर्मो को देखकर उन पर व्यंग करता और हँसता भी है, लेकिन उसे अपने दोष और कर्म याद नहीं आते जिनका न तो कोई सर है और ना ही पैर।
सार ये है की ज्ञात तो है लेकिन अज्ञातवश नकारात्मक है।
सार ये है की ज्ञात तो है लेकिन अज्ञातवश नकारात्मक है।