Tuesday, July 14, 2015

# हाँ, अब ये और बात है - #Haan Ab Yeh Aur Baat Hai


वो बचपन और वो स्कूल।
ये जवानी और ये नौकरी।। हाँ, अब ये और बात है।

वो कागज़ की नाव और वो बारिश में पैरो से छप - छप।
ये जिम्मेदारी वाला रैनकोट और ये बेगारी।। हाँ, अब ये और बात है।

वो मुर्गा बनना और वो स्कूल की टेबल पर खड़े होना।
ये अकेली जिंदगी और ये तन्हाई।। हाँ, अब ये और बात है।

 वो छोटे - छोटे खिलोने और वो छुपन छुपाई और पोषम - पाई।
ये खेल मृत्यु के भय का और ये जीवन का सत्य।। हाँ, अब ये और बात है।

वो बातों - बातों में खिल - खिला के हंसना और वो पापा - पापा कहके गले लग जाना, आज क्या लाये पापा।
ये खुद की और दो पेट की नौकरी और ये खींझता हुआ अपनों से ही दूर होने का दर्द।। हाँ, अब ये और बात है।

वो माँ का नहलाना और वो पिता जी का टहलने ले जाना।
ये समय की अनियंत्रित चाल और ये स्वार्थीपन।। हाँ, अब ये और बात है।

वो स्कूल की यूनिफार्म और वो सभ्यता से परिपूर्ण संस्कार।
ये घमंड-वाक्  और ये अपनों के ही पैसों का दम और लड़ाई।। हाँ, अब ये और बात है।

वो क्लास का मॉनिटर होना और वो हर प्रतियोगिता में भाग लेना।
ये अपने - अपनों की प्रतियोगिता और ये दूसरों से खुद की शान का परचम।। हाँ, अब ये और बात है।

वो ग्रीष्म कालीन अवकाश और वो गाॉव का दौरा परिवार के साथ।
ये शहर की व्यस्त भाग दौड़ और ये छूटता हुआ अपनापन ।। हाँ, अब ये और बात है।

कविता लेखक - प्रवीण त्रिपाठी

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